आचार्य डॉ. उमेश कुमार मिश्र ब्लॉग
आचार्य डॉ. उमेश कुमार मिश्र
*शिव पूजन और रुद्राभिषेक*
शिवपूजन और रुद्राभिषेक से हमारी कुंडली के महापाप भी जलकर भस्म हो जाते हैं और हममें शिवत्व का उदय होता है।भगवान शिव का शुभाशीर्वाद प्राप्त होता है। सभी मनोरथ पूर्ण होते हैं। सदाशिव रुद्र के पूजन से सभी देवताओं की पूजा स्वत: हो जाती है।
*रुद्राभिषेक के विभिन्न वस्तुओं से पूजन के लाभ इस प्रकार हैं-*
*२:-* असाध्य रोगों को शांत करने के लिए कुशोदक से रुद्राभिषेक करें।
*३:-* भवन-वाहन के लिए दही से रुद्राभिषेक करें।
*४:-* लक्ष्मी प्राप्ति के लिए गन्ने के रस से रुद्राभिषेक करें।
*५:-* धनवृद्धि के लिए शहद एवं घी से अभिषेक करें।
*६:-* तीर्थ के जल से अभिषेक करने पर मोक्ष की प्राप्ति होती है।
*७:-* इत्र मिले जल से अभिषेक करने से बीमारी नष्ट होती है।
*८:-* पुत्र प्राप्ति के लिए दुग्ध से और यदि संतान उत्पन्न होकर मृत पैदा हो तो गोदुग्ध से रुद्राभिषेक करें।
*९:-* रुद्राभिषेक से योग्य तथा विद्वान संतान की प्राप्ति होती है।
*१०:-* ज्वर की शांति हेतु शीतल जल/ गंगाजल से रुद्राभिषेक करें।
*११:-* सहस्रनाम मंत्रों का उच्चारण करते हुए घृत की धारा से रुद्राभिषेक करने पर वंश का विस्तार होता है।
*१२:-* प्रमेह रोग की शांति भी दुग्धाभिषेक से हो जाती है।
*१३:-* शकर मिले दूध से अभिषेक करने पर जड़बुद्धि वाला भी विद्वान हो जाता है।
*१४:-* सरसों के तेल से अभिषेक करने पर शत्रु पराजित होता है।
*१५:-* शहद के द्वारा अभिषेक करने पर यक्ष्मा (तपेदिक) दूर हो जाती है।
*१६:-* पातकों को नष्ट करने की कामना होने पर भी शहद से रुद्राभिषेक करें।
*१७:-* गोदुग्ध से तथा शुद्ध घी द्वारा अभिषेक करने से आरोग्यता प्राप्त होती है।
करुणानिधान श्रीराम जी के भक्त, संकटमोचक और महारुद्र के एकादश अवतार वायु पुत्र अनन्त बलवन्त श्री हनुमंत लाल जी महाराज के पावन जयन्ती की अनन्त कोटि हार्दिक शुभकामनाएं।
*समय आलोचना का नहीं आत्ममंथन का है।*
जैसा कि हम सब जानते है कि पिछले वर्ष प्रमादी नामक संवत्सर होने की चर्चा थी और इस वर्ष राक्षस नामक संवत्सर की चर्चा है।
यद्यपि काशी विद्वत् परिषद् ने निर्णय दे दिया है कि इस वर्ष आनन्द नामक संवत्सर ही है और वही मान्य है। ध्यातव्य हो कि यह परिषद् धर्मशास्त्रीय निर्णयों की सर्वोच्च इकाई मानी जाती है। यह परिषद् वैश्विक आर्ष मनीषा के संवाहक सुधी आचार्यों, विषय विशेषज्ञों, तप:पूत मूर्धन्य विद्वानों का एक अत्यन्त पावन समवाय है जिसे हम सभी को मुक्त कण्ठ से स्वीकार करना चाहिए।
लेकिन राक्षस संवत्सर के बारे में जो शास्त्रों में लिखा मिलता है वह इस प्रकार है-
नश्यन्ति सर्वशस्यानि ,रोगार्तिश्च महर्घता।
प्रजानाशो भयं घोरं ,राक्षसे गौरि! पीडनम्।।१
स्वस्वकार्येरता: सर्वे मध्यसस्यार्घवृष्टय:।
राक्षसाब्दे&खिलालोका राक्षसा इव निष्क्रिया:।।
उक्त संवत्सर फल और वर्तमान में कोविड-19 महामारी की वैश्विक विभीषिका को देखकर मन बहुत विचलित सा हो रहा है।
परन्तु
ईश्वर का अवलम्ब और कुटुम्बियों की सहयोगी भावना आज फिर से प्राणशक्ति में एक नई ऊर्जा का संचार निरंतर कर रही है।
इस सोशल मीडिया के जमाने में हम सब से यह क्रूर काल कैसा नर्तन करा रहा है कि एकक्षण किसी को बधाई और शुभकामना देने में लग रहा है तो दूसरा क्षण अश्रुपूरित श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए विवश होना पड़ रहा है। सामाजिक मर्यादा है दोनों कार्य क्षणानुक्षण करना पड़ रहा है।
इस महामारी ने हम सब से न जाने कितने अनमोल जीवरत्नों को जबरन छीन लिया। आखिर प्राणों पर किसका वश है।
*गतानुगतिको लोक:, न लोक:पारमार्थिक:।*
खैर विकसित देश हों या विकासशील देश, सभी जगह इस महामारी का प्रकोप कमोबेश एक जैसा ही है। सरकारें अपने अपने संसाधनों और तजुर्बे के हिसाब से होने वाली इस बड़ी क्षति को कमतर करने के अधिकतम प्रयास कर रही हैं।
जीवन को एकबार फिर पटरी पर लाने और जिजिविषा को पुनः संजीवित करने में विश्व की सभी सहृदय स्वयंसेवी संस्थाएं, चिकित्सक, समाजसेवी, मनीषी, व्यवसायी, न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका अपनी पूरी आनुभविक शक्ति का उपयोग कर इससे जनता को बचाने के सभी प्रयासों को अनुष्ठित करने में निरंतर लगी हुई है।
ईश्वर इन्हें सामर्थ्य और मनोबल प्रदान करें ।
साथ ही साथ हम सब अपने को और अपनों के साथ ही साथ वैश्विक कुटुम्ब को इस महामारी से बचाने के लिए
*अपनी बारी आने पर कोरोना का टीका अवश्य लगवा लें।
अनावश्यक वस्तुओं के संग्रह से बचें।
* अफवाहों पर ध्यान न दें।
* कोविड-19 से सम्बन्धित सरकारी दिशानिर्देशों की अनदेखी या उपेक्षा न करें।
* लक्षण परिलक्षित होने पर कोविड-19 की जांच कराएं तथा सरकार द्वारा अनुमोदित कुशल चिकित्सकों का ही परामर्श लें। कोविड सेंटर जाने से न घबराएं।
*बहुत आवश्यक न हो तो बाहर जाने से बचें।
*एक-दूसरे का सहयोग करें। अनावश्यक वाद-विवाद से बचें।
* खुद का मनोबल ऊंचा रखें और दूसरों का भी मनोबल गिरने से बचाएं।
*गोमूत्र में फिटकिरी मिलाकर पोंछा पूरे घर में लगाएं।
*गाय की कंडी पर कपूर/लवंग/*अजवाइन/गूगल और लोहबान का थोड़ा धुआं पूरे घर में दिखाएं।
*नाक ,कान, नाभि और दोनों पैरों के तलवे में नारियल का तेल या सरसों का तेल लगाएं।
* तुलसी कालीमिर्च खाली पेट चबा चबाकर खाएं।
*दूध में थोड़ी कच्ची हल्दी मिलाकर या हल्दी पाउडर मिलाकर पिएं।
गुड़ खाएं और थोड़ी थोड़ी देर पर हल्का गर्म पानी पीते रहें।
*भरपूर नींद लें। तनाव से बचें।
*नींबू/संतरा/मौसमी का जूस पिएं
*नींबू/संतरा /मौसम्मी के छिलके और नीम के पत्तों को पानी में उबालकर भांप लेते रहें।
सुपाच्य भोजन ही करें। खाली पेट रहने से बचें।
शरीर/ स्वास्थ्य के हिसाब उचित कुछ आसन/ प्राणायाम/योग-व्यायाम अवश्य करें
*गिलोय / पारिजात का काढ़ा पिएं।
*ठंडी तासीर वाली चीजों को खाने से परहेज़ करें।
एसी/कूलर/फ्रीज से भी परहेज करें।
*पेट साफ न हो रहा हो तो त्रिफला का सेवन गर्म पानी से करें।
*गले में खराश हो खांसी आ रही हो तो गर्म पानी फिटिकिरी से गलाला करें।
*बुखार आ रहा हो तो पारिजात (हरश्रृंगार)के पत्ते और अदरक कालीमिर्च डालकर काढ़ा पिएं।
* खाली पेट – गिलोय घनवटी
सुदर्शन वटी
ज्वरनाशक वटी
* खाना खाने के बाद-
लक्ष्मी विलास रस
त्रिभुवन कीर्ति रस
संजीवनी बूटी
आदि को कुशल चिकित्सक के परामर्श में सेवन करें।
*इम्युनिटी बुस्टर भी ले सकते हैं।
*इस आपदा से समूचे विश्व को बचाने के लिए
* श्रद्धा और विश्वास के साथ पूजा-अर्चना करें।
* सकारात्मक सोच के साथ अपने आप को व्यस्त रखें।
अपना ख्याल रखें और सुरक्षित रहें।
शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्।
आप सभी को पौन:पुन्येन हार्दिक शुभकामनाएं। और विश्वात्मा को प्रणाम।
आपका अपना –
(डॉ0 उमेश कुमार मिश्र)
मां तो बस मां होती है। सन्तान चाहें परिस्थिति जन्य कितने बड़े संकट में क्यों न हो मां अपनी परवाह किए बिना अपनी वात्सल्यमयी स्नेहिल आंचल की छाया प्रदान कर संकट दूर कर देती है ।
तभी तो आचार्य शंकर क़ो भी कहना पड़ा कि *कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति।* और मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम को भी कहने के लिए विवश होना पड़ा कि *जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।*
कहने का वश आशय इतना ही है कि यदि हठी मन ने एकबार शिवसंकल्प कर ही लिया हो तो चाहें परिस्थितियों के सापेक्ष वह तत्काल सम्भव न लगता हो परन्तु यदि तुमने उस शिव संकल्प को मां से सुना दो तो निश्चित जानों कि मर्त्यधर्मा दो हाथों से असम्भव लगने वाले वे ही संकल्प भगवती जगज्जननी के अठ्ठारह हाथों के सामने बौने नजर आते हैं। धीरज रखो और बस प्रतीक्षा करो।
क्योंकि तुम यह बात शर्तिया जानों कि तुम्हें रूठना नहीं आता। एकबार रूठकर तो देखो।
आवश्यक कार्यवश बच्चे को थोड़ा दूध पिला कर हाथ में झुंझुना पकडाकर फुसलाने वाली वही मां जब बच्चा रूठकर एक दिन दूध पीने से मना कर देता है तो वही मां बड़े से बड़े और आवश्यक से भी आवश्यक सभी कामों को छोड़कर दिनभर-रातभर अपने स्तनों से चिपकाकर इतना दूध पिलाने लगती है कि वही बच्चा फिर पोंकने और छेरने लगता है। बच्चा इतना इतना और इतना पोंकने और छेरने लगता है कि फिर उसी मां को वैद्य भी बुलाना पड़ता है और मनभर दूध भी पिलाना पड़ता है।
*अष्टयाम महायज्ञ*
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भगवती नारायणी और मां गंगा जैसी परम पूता महानदियों से सनाथित और चम्पकारण्य जैसे तपोवन के सुरभि से सुवासित ,अनेक महापुरुषों और सिद्ध संतसंतानवितान का उत्सभूत *बिहार* प्रान्त के निवासी श्रद्धालुजन और भगवान विठ्ठल के भक्तगण इस याग को बड़ी श्रद्धा से करते हैं परन्तु दोनों की आराधन पद्धति भिन्न है। उत्तरोत्तर इसमें श्रीवृद्धि और सर्वसमाज में प्रसिद्धि होती गई।
इसका आरंभ कब हुआ ,सर्वप्रथम इस याग को किसने अनुष्ठित किया इसे अभिलेखीकरण के अभाव में स्पष्ट रूप में तो कहना कठिन है परन्तु यह याग अत्यन्त प्राचीन और सिद्ध परम्पराप्राप्त शास्त्रीयविधिपुष्ट संदर्भित अनुष्ठान है। जो सर्व मनोकामना पूरक और परमात्मविनिवेदन का परम हितैषी अजिह्म सेतु है जिस पर चलकर चतुर्विध पुरुषार्थों की सहज सम्प्राप्ति सुतरां सम्भव है।
एक दिन-रात को मिलकर एक अहोरात्र होता है जिसमें आठ याम (प्रहर) होता है। इसी काल विशेष को अष्टयाम शब्द से अभिहित किया जाता है। आठों याम अर्थात् प्रहर में भगवान विष्णु के गुणानुवाद उपासना की जाती है। इस याग की खास बात यह है कि यह विहंगम विधि से नारदीय भक्ति पद्धति पर आधारित है।
इसमें भगवच्चरणारविन्द का अहर्निश स्मरण (द्वादशाक्षर मन्त्र जप) अहर्निश हवनीय द्रव्यों का स्वाहाकार एवं अहर्निश भगवद्दर्शन पर आधारित अखण्ड श्रीरामचरितमानस पारायण अथवा उत्प्लव विधि से श्रीमद्भागवत महापुराण का पाठ अखण्ड ज्योति लव के साक्षीभाव में चल संकीर्तन को संगीतस्वरलहरी के साथ चतुष्पथ वीथिका संवलित वेदिका युक्त सौर्यदीप मंडप में अनुष्ठित किया जाता है तथा भण्डारे के साथ साधुसंगम किया जाता है।
यह शुभयाग पूर्व संकल्पानुसार दशविध स्नान,ब्रह्मसरोबर यात्रा, मातृकाओं के पूजन और प्रायश्चिताचरण के उपरांत पंचांगोपनयन पुरस्सर गुरुजन, बन्धु-बान्धवों,इष्ट, मित्रों की उपस्थिति और अनुसमर्थन में किया जाता है। इस याग की अवर्णनीय फलश्रुति है तथापि नियम और फलश्रुति यथाशास्त्र वर्णित है
इस वर्ष 11 अगस्त 2020 को मंगलवार को अर्द्धरात्रि व्यापिनी श्री कृष्ण जन्माष्टमी के व्रत का महात्म्य सर्वोत्तम होगा। स्मार्त (गृहस्थ) धर्मानुरागी 11अगस्त को ही श्री कृष्ण जन्माष्टमी व्रत करें।।
दर असल बात यह है कि कृष्ण जन्माष्टमी के पावन पर्व के बारे में शदियों से एक मान्यता प्रचलित है कि भगवान श्रीकृष्ण का जन्म जिस तिथि और जिस नक्षत्र में हुआ था उससे निकटता स्थापित कर जन्मोत्सव मनाया जाय।
परन्तु
प्राय: ऐसा हर वर्ष हो जा रहा है कि जब तिथि (मध्य रात्रि में अष्टमी) मिलती है तो नक्षत्र (रोहिणी) नहीं मिलती है और जब नक्षत्र मिलता है तो उस दिन वह तिथि नहीं मिलती है। ऐसे में यह पावन पर्व श्रद्धालुजनों की आस्था में वैविध्य को दृष्टिगत रखते हुए श्रद्धालुजनों की मान्यता (उनकी नक्षत्र और तिथि ) और अनैक्य के कारण दो प्रमुख भागों में बंट गया।
पहले वे जिनका यह आग्रह है कि भगवान श्रीकृष्ण का जन्म अष्टमी तिथि की मध्य रात्रि को हुआ था।अतः जिस दिन भाद्रपद महीने की कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि मध्य रात्रि में मिलेगी उसी दिन श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का व्रत रखा जाएगा और मध्य रात्रि में श्रीकृष्ण जन्म महोत्सव मनाया जाएगा।ऐसी स्थिति में इस वर्ष ग्यारह तारीख के दिन अष्टमी तिथि मध्य रात्रि में मिलेगी। इसलिए हम सभी स्मार्तलोग(गृहस्थ लोग) ग्यारह तारीख को श्रीकृष्ण जन्म महोत्सव मनाएंगे।
परन्तु
कुछ लोगों की मान्यता है कि भगवान श्रीकृष्ण का जन्म अष्टमी तिथि को हुआ था इसलिए उदयातिथि (सूर्योदय कालिक तिथि)को स्वीकार करते हैं। ऐसे में इस वर्ष भाद्रपद मास की कृष्णपक्ष की अष्टमी तिथि सूर्योदय काल में बारह तारीख को मिल रही है। इस मत को मानने वाले शास्त्रीय आधार यह देते हैं कि
“कलाकाष्ठामुहूर्तापि
यदा कृष्णाष्टमी तिथि:।
नवम्यां सैव ग्राह्या स्यात्सप्तमीसंयुता नहि”।।
वर्जीनिया प्रयत्नेन
सप्तमी संयुताष्टमी।
सऋक्षापि न कर्तव्या
सप्तमी संयुताष्टमी।।
जन्माष्टमी पूर्वविद्धा न कर्त्तव्या कदाचन।
पलवेधे तु विप्रेन्द्र!
सप्तम्या चाष्टमीं त्यजेत्।
इस प्रकार पूर्वविद्धा अर्थात् सप्तमी युक्त अष्टमी का निषेध हो जाता है।
सुराया विन्दुना स्पृष्टं गङ्गाम्भःकलसं यथा।
विना ऋक्षेण कर्त्तव्या ,
नवमी संहिता अष्टमी।
रोहिणी नक्षत्र न भी मिल रहा हो तो भी अष्टमी युक्त नवमी ग्रहण करनी चाहिए।
सऋक्षापि न कर्त्तव्या सप्तमी संयुक्त अष्टमी।
तस्मात् सर्वप्रयत्नेन त्याज्यमेवाशुभं बुधैः।
रोहिणी नक्षत्र मिलने पर भी सप्तमी युक्त अष्टमी
ग्रहण नहीं करनी चाहिए।
*वेधे पुण्यक्षयं याति,
तमः सूर्योदये यथा।*
अतः 12 अगस्त बुधवार को ही अभीष्ट है।इन लोगों के मत में
तीन महानिशाओं में से एक मोहरात्रि का उत्सव मनाने के अधिकतम योग 11 एवं 12 अगस्त को मिल रहा है, जबकि रोहिणी नक्षत्र का मान 13 अगस्त को भोर में एक घंटा 55 मिनट के लिए मिलेगा। रोहिणी की निकटता और मान्यता को देखते हुए 12 अगस्त को जन्माष्टमी मनाना संगत है। काशी, उज्जैन और देश के अन्य हिस्सों से प्रकाशित विभिन्न पंचांगों में ग्रह गणना के मूलभूत अंतर के कारण तिथियों में भिन्नता आती है। यही वहज है कि 11 और 12 दोनों ही दिन श्रीकृष्ण जन्माष्टमी मनाने के योग बन रहे हैं। भाद्रपद कृष्ण अष्टमी तिथि का प्रारंभ 11 अगस्त को सुबह 09 बजकर 04 मिनट पर होगा। यह तिथि 12 अगस्त को दिन में 11 बजकर 11 मिनट तक रहेगी। रोहिणी नक्षत्र का प्रारंभ 13 अगस्त की रात्रि को 03 बजकर 20 मिनट से हो रहा है और समापन सुबह 05 बजकर 16 मिनट पर होगा। *ऐसे में 12 अगस्त को जन्माष्टमी मनाना सही रहेगा। अष्टमी पूजन का सर्वमान्य मुहूर्त 12 अगस्त की रात्रि 12 बजकर 05 मिनट से 12 बजकर 48 मिनट तक है। 43 मिनट के इस शुभ मुहूर्त में भगवान श्रीकृष्ण के जन्म का विधान पूर्ण करना श्रेयस्कर होगा।
अतः इस मत को मानने वाले श्रद्धालुओं की श्रीकृष्ण जन्माष्टमी बारह तारीख को मनाई जा सकेगी।
परन्तु
जो वैष्णव लोग यह मानते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण का जन्म रोहिणी नक्षत्र में हुआ था एतदर्थ जब भाद्रपद मास की कृष्णपक्ष की अष्टमी से सम्बन्धित होकर मध्य रात्रि में रोहिणी नक्षत्र मिलेगा उसी दिन श्रीकृष्ण जन्माष्टमी मनाई जाएगी।
दिवा वा यदि वा रात्रौ
नास्ति चेद्रोहिणी कला।
ऐसे में यह सुयोग इस वर्ष तेरह तारीख को मिल रहा है। अतः इस बात को मानने वाले सुधी वैष्णव श्रद्धालुजन तेरह तारीख को श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का महोत्सव अनुष्ठित करेंगे।
अर्थात् इस बार वैष्णव जन यह श्रीकृष्ण जन्माष्टमी व्रत तेरह तारीख को मनाएंगे।
काशी पर एक ज्ञानश्रृंखला, क्रमशः……….
*काश्यां हि काशते काशी,*
*काशी सर्वप्रकाशिका।*
*सा काशी विदिता येन,*
काशी नगरी एक अत्यन्त प्राचीन मानी जाती है।इसकी प्रसिद्धि का आधार ,भगवान भूत-भावन श्रीकाशी विश्वनाथ का नित्य सानिध्य और मां अन्नपूर्णा के अक्षय करुणामयी वात्सल्यपूर्ण दृष्टि के कारण उसका प्रथित यश रहा है।
इसकी प्रसिद्धि के अन्य आधारों में भगवती मां विशालाक्षी का भी अविच्छिन्न सानिध्य माना जाता है ।(एक शक्तिपीठ, जहां सती का आंख गिरा था।)
प्रामाणिक मान्यता के रूप में एक अन्य जनश्रुति यह भी है कि यह परम पावन काशी भगवान शिव के त्रिशूल पर अवस्थित है।
यह मोक्ष प्रदान करने वाली पुरियों में प्रधानरुप से अग्रगण्य भी है।
शास्त्रीय संन्दर्भो के आलोडन से यह ज्ञात होता है कि भूत-भावन भगवान शिव और मां पार्वती के साथ तारकेश्वर रूप में यहां महाप्रयाण करने वाले समस्त जीवों को भैरवी यातना के उपरांत(काशी के तीन खंडों– आदिकेशवखंड, विश्वेश्वर खंड और केदारखंड में से केदार खंड को छोड़कर। केदार खंड में जीव को भैरवी यातना से नहीं गुजरना पड़ता है।) तारक महामंत्र प्रदान कर सदा सदा के लिए भवचक्र से मुक्त करते हैं। इसीलिए काशी के बारे में बड़े आदर के साथ यह सुनाई पड़ता है कि
*मरणं मंगलं यत्र*
सच में, यह काशी अद्भुत और अपने आप में अनूठी है।
इसके बारे में जितनी भी विशेषताएं दृष्टि पथपर गोचरित होती है उससे भी कहीं अधिक रहस्य के रूप में पुनः नव नवोन्मेष के लिए आधार बन जाती है। इसी पीयूष स्रोत का सहारा लेकर
आइए, हम सभी मिलकर इस परमपावनी श्रीकाशी नगरी के बारे में जो भी अपनी अनुभूति अथवा जानकारी है उसको इस समूह में सभी के लिए प्रस्तुत करें तथा इस ज्ञानगंगा के अविरल प्रवाह को नयी दिशा प्रदान करने में सहयोगी बनें।
इस ज्ञानश्रृंखला का आरंभ करते हुए हम अपनी एक आश्चर्य /शंका को आप सभी सुविज्ञ,सुधी,सम्मानित सदस्यों के समक्ष समाधान/विचार-विमर्श हेतु प्रस्तुत कर रहे हैं और यह आशा कर रहे हैं कि यह ज्ञानश्रृंखला हमसभी के पथ को प्रशस्त और सर्वतोभावेन आलोकित करेगी।
*(१) समस्त विशेषताओं के बावजूद इस काशी को तीर्थराज की उपाधि प्राप्त नहीं हुई बल्कि प्रयाग को यह सुयोग प्राप्त हुआ।आखिर क्यों?*
*(२) ऐसी मान्यता है कि काशी के तीन खंडों में से केदार खंड में जीव की मुक्ति बिना भैरवी यातना के सम्पन्न होती है जबकी आश्चर्य है कि विश्वेश्वर खंड में भैरवी यातना से जीव को गुजरना पड़ता है। आखिर क्यों?*
याद आता है त्यौहारों पर अपना बचपन।क्या खूबसूरत हुआ करता था।
आज तो समाज इन महत्त्वपूर्ण पर्व त्यौहारों को,उसके रीति-रिवाजों को, और तो और,अपनी बेबाकी को भी भूलता नजर आ रहा है। कुछ रौनक तो कुछ बेबसी में जिये जा रहा है।क्या बच्चे क्या युवा और क्या वृद्ध, इन त्यौहारों पर सबके लिए कुछ न कुछ खास होता था।खुशियां लुटाने के बाद भी खुशियों का अम्बार हुआ करता था। अपनों में अपनापन को जी लेने की आतुरता सी होती थी।अभाव में भी भरा-पूरा भाव छुपा होता था।
परन्तु आज!
न जाने किसकी नजर लग गई?क्यों हो गया ऐसे? कभी सोचा हम सभी ने?
तब के चन्द सम्बन्धों में अपनी हंसी खुशी पूरी दुनिया बसा करती थी। आज काल्पनिक चकाचौंध वाले दुनियाबी और फरेबी सम्बन्धों का छुद्र व्यापारवाद और बुद्धिवाद……। *कहां को चले थे कहां जा रहे हम।
कोरोनावायरस की कहर मानव जाति के लिए बहुत दुखद है। यह बहुत बड़ी आपदा है।ईश्वर सबकी रक्षा करें। सम्पूर्ण विश्व इस संकट से जल्द ही उबर जाए।
परन्तु
* विमुख राम त्राता नहीं कोई।* धर्म को अफीम बताकर थोथी आदर्श की दुहाई देने वाले मार्क्सवादी और गार्ड पार्टिकल बनाने वाले एगेरियन शाकाहारी तथाकथित वैज्ञानिक आज प्रकृति के अपना संतुलन बनाने के कुछेक नमूनों से क्यों घबरा,थरथरा रहे हैं ।
क्या यह सच नहीं है कि इसी चीन ने “दुनिया के मजदूरों ! एक हो जाओ” का नारा समझाते समझाते अपने नागरिकों को ही नहीं अपितु आधे विश्व को प्रकृति से सुदूर मशीनी जीवन जीने की आदत विकसित कर दिया। जीने के लिए मजबूर कर दिया।प्लास्टिक का चावल बनाकर गरीब का लीबर लील लिया ।
शाकाहार से सबको दूर करके बच्चों,युवाओं वृद्धों को चमगादड़, सांप,विच्छू, आदि का सूप बनाकर सुबह-शाम दो दो कप दवा की तरह खूब पिलाया और अब अपनी कोरोना ग्रस्त जनता को गोली मार रहा है। मैं फिर कह रहा हूं-बिमुख राम त्राता नहीं कोई।
अण्डा, शराब, बीयर, बिरियानी दूध की चाय, ब्रेड,बर्गर को माशूम जनता की थाली में परोसने वाले तथाकथित मेडिकल साइंस के भिष्मपितामह किस बिल में घुस गए हैं। धर्म,कर्म कर्मकांड और प्राकृतिक एवं धार्मिक जीवन जीने वालों को गरीबी,ढकोसला अंधविश्वास बताने में अपना गला सुखाने वाले डॉक्टर क्यों नहीं कुछ बोल रहे हैं।
जैन धर्म के महापर्व पर भी अंडा, बिरयानी,कबाब की दूकान को खोलवाने का आदेश देने वाले मुम्बई के मिलाड साहब कहां है।
सारी दुनिया को शुद्ध पानी के नाम पर सिलबन्द पानी बोतल और आरो पकड़ाने वाले पीपल, पाकड़ की प्राकृतिक छांव को छीनकर एसी की हवा खिलाने वाले और कोरोनावायरस के नाम पर पूरे विश्व में जनता को डरा डराकर मास्क बेचवाने वाले आखिर में इसमें भी व्यापार ढूंढ लिए……
सच कहूं तो पूरा विश्व अनचाहे चाहे भगवान की शरण में त्राहि माम् त्राहि माम् कर रहा है।
*श्रावणी उपाकर्म*
(साभार आद्य शङ्कराचार्य सन्देश )
उपाकर्म का अर्थ है प्रारंभ करना। उपाकरण का अर्थ है आरंभ करने के लिए निमंत्रण या निकट लाना। यह वेदों के अध्ययन के लिए विद्यार्थियों का गुरु के पास एकत्रित होने का काल है । इसके आयोजन काल के बारे में धर्मगंथों में लिखा गया है कि – जब वनस्पतियां उत्पन्न होती हैं, श्रावण मास के श्रवण व चंद्र के मिलन (पूर्णिमा) या हस्त नक्षत्र में श्रावण पंचमी को उपाकर्म होता है। इस अध्ययन सत्र का समापन, उत्सर्जन या उत्सर्ग कहलाता था। यह सत्र माघ शुक्ल प्रतिपदा या पौष पूर्णिमा तक चलता था। श्रावण शुक्ल पूर्णिमा के शुभ दिन रक्षाबंधन के साथ ही श्रावणी उपाकर्म का पवित्र संयोग बनता है। विशेषकर यह पुण्य दिन ब्राह्मण समुदाय के लिए बहुत महत्व रखता है। जीवन की वैज्ञानिक प्रक्रिया:- जीवन के विज्ञान की यह एक सहज, किन्तु अति महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है । जन्मदात्री माँ चाहती है कि हर अण्डा विकसित हो । इसके लिए वह उसे अपने उदर की ऊर्जा से ऊर्जित करती है, अण्डे को सेती है । माँ की छाती की गर्मी पाकर उस संकीर्ण खोल में बंद जीव पुष्ट होने लगता है । उसके अंदर उस संकीर्णता को तोड़कर विराट् प्रकृति, विराट् विश्व के साक्षात्कार का संकल्प उभरता है । उसे फिर उस सुरक्षित संकीर्ण खोल को तोड़कर बाहर निकलने में भय नहीं लगता । वह दूसरा-नया जन्म ले लेता है । यह प्रक्रिया प्रकृति की सहज प्रक्रिया है, किन्तु पुरुषार्थसाध्य है । पोषक और पोषित; दोनों को इसके अंतर्गत प्रबल पुरुषार्थ करना पड़ता है । इसीलिए युगऋषि ने लिखा है- ‘मनुष्य जन्म तो सहजता से हो जाता है, किन्तु मनुष्यता विकसित करने के लिए कठोर पुरुषार्थ करना पड़ता है ।’ जैसे अण्डा माता की छाती की ऊष्मा से पकता है, वैसे ही मनुष्यता गुरु-अनुशासन में वेदमाता की गर्मी (शुद्ध ज्ञान की ऊर्जा) से धीरे-धीरे परिपक्व होती है । परिपक्व होने पर साधक अपने संकल्प से उस संकीर्णता के घेरे को तोड़ डालता है । तब उसे अपने तथा जन्मदात्री माता के स्वरूप का बोध होता है । तब वह भी माँ की तरह विराट् आकाश में उड़ने की चेष्टा करता है । तब माँ ऊँची उड़ानें भरने के उसके प्रयासों को शुद्ध-सही बनाती है । यही मर्म है- ‘पावमानी द्विजानाम्’ का । जो संकीर्णता के खोल में बंद है, उसे माँ विकसित करने के लिए अपनी ऊर्जा तो देती रहती है, किन्तु नया जन्म लेने के पहले उसके लिए अपने अन्य कौशलों का प्रयोग नहीं कर सकती । जिसने दूसरा जन्म ले लिया, वह ‘द्विज’ । नये दुर्लभ जन्म की प्रक्रिया को पूरा करने की प्रवृत्ति-साधना है ‘द्विजत्व’ । जब द्विज के चिंतन, चरित्र, व्यवहार पवित्र हो जाते हैं, तो वह ब्रह्म के अनुशासन में सिद्ध ब्राह्मण हो जाता है । जब उसकी कामनाएँ ब्रह्म के अनुरूप ही हो जाती हैं, तो ब्राह्मी चेतना-आदिशक्ति उसके लिए कामधेनु बन जाती है । जिसकी कामनाएँ-प्रवृत्तियों अनगढ़ हैं, उन्हें पूरा करने से तो संसार में अनगढ़ता ही बढ़ेगी । इसलिए माता सुगढ़-शुद्ध कामना वालों के लिए ही कामधेनु का रूप धारण करती है । भारतीय संस्कृति में द्विजत्व और ब्राह्मणत्व का संबंध किसी जाति या वर्ग विशेष में जन्म लेने से नहीं है, बल्कि वह साधना की उच्च कक्षा से जुड़े सम्बोधन हैं । इसीलिए संस्कारों से द्विजत्व की प्राप्ति की बात कही जाती रही है । संगीत के द्वार सभी के लिए खुले हैं, किन्तु संगीताचार्य अपनी बारीकियाँ उन्हीं के सामने खोलते हैं, जिनकी संगीत साधना उच्च स्तरीय हो गई है । खेल सभी खेल सकते हैं, किन्तु खेल प्रशिक्षक खेल तकनीक की बारीकियाँ उसी को समझाता है, जिनके कौशल और दमखम की साधना उच्च स्तरीय है । जिसकी साधना विकसित नहीं हुई है, उसे आगे की बात बताने से बतलाने वाले का प्रयास निरर्थक तो जाता ही है, कई बार उसका विपरीत प्रभाव भी भोगना पड़ जाता है । तिथि:- श्रावण पूण्रिमा में यदि ग्रहण या संक्रांति हो तो श्रावणी उपाकर्म श्रावण शुक्ल पंचमी को करना चाहिये।’भद्रायां ग्रहणं वापि पोर्णिमास्या यदा भवेत। उपाकृतिस्तु पंचम्याम कार्या वाजसेनयिभ:’ संक्रांति व पूर्णिमा युति या ग्रहण पूर्णिमा युति में वाजसेनी आदि सभी शाखा के स्वाध्यायी जनों को उपाकर्म (श्रावणी) पंचमी को कर लेनी चाहिये। शास्त्र सम्मत श्रावण उपाकर्म भद्रा दोष, ग्रहण युक्त पूर्णिमा, संक्राति युक्त पूर्णिमा में नहीं किया जाता तब उससे पूर्व श्रावण शुक्ल पंचमी नागपंचमी में श्रावणी स्नान उपाकर्म करने के शास्त्रोक्त निर्देश हैं। हेमाद्रिकल्प, स्कंद पुराण, स्मृति महार्णव, निर्णय सिंधु, धर्म सिंधु आदि ज्योतिष व धर्म के निर्णय ग्रंथों में इसके प्रमाण हैं। कुछ ग्रंथों के प्रमाण इस प्रकार हैं- ‘श्रावण शुक्लया: पूर्णिमायां ग्रहणं संक्रांति वा भवेतदा। यजुर्वेदिभि: श्रावण शुक्ल पंचम्यामुपाकर्म कर्तव्यं॥’ अर्थात श्रावण पूण्रिमा में यदि ग्रहण या संक्रांति हो तो श्रावणी उपाकर्म श्रावण शुक्ल पंचमी को करना चाहिये। एक अन्य श्लोक के उल्लेख के अनुसार भद्रा में दो कार्य नहीं करना चाहिये एक श्रावणी अर्थात उपाकर्म, रक्षाबंधन, श्रवण पूजन आदि और दूसरा फाल्गुनि होलिका दहन। भद्रा में श्रावणी करने से राजा की मृत्यु होती है तथा फाल्गुनी करने से नगर ग्राम में आग लगती है तथा उपद्रव होते हैं। श्रावणी अर्थात उपाकर्म रक्षाबंधन, श्रवण पूजन भद्रा के उपरांत ही की जा सकती है। लेकिन ग्रहण युक्त पूर्णिमा भी श्रावणी उपाकर्म में निषिध्द है|हम सभी का यह अतिमहत्वपूर्ण कर्म हैं|
#श्रावणी_पर्व:- श्रावणी पर्व द्विजत्व की साधना को जीवन्त, प्रखर बनाने का पर्व है । जो इस पर्व के प्राण-प्रवाह के साथ जुड़ते हैं, उनका द्विजत्व-ब्राह्मणत्व जाग्रत् होता जाता है तथा वे आदिशक्ति, गुरुसत्ता के विशिष्ठ अनुदानों के प्रामाणिक पात्र बन जाते हैं । द्विजत्व की साधना को इस पर्व के साथ विशेष कारण से जोड़ा गया है । युगऋषि ने श्रावणी पर्व के सम्बन्ध में लिखा है कि यह वह पर्व है जब ब्रह्म का ‘एकोहं बहुस्यामि’ का संकल्प फलित हुआ । पौराणिक उपाख्यान सबको पता है । भगवान की नाभि से कमलनाल निकली, उसमें से कमल पुष्प विकसित हुआ । उस पर स्रष्टा ब्रह्मा प्रकट हुए, उन्होंने सृष्टि की रचना की । युगऋषि इस अंलकारिक आख्यान का मर्म स्पष्ट करते हुए लिखते हैं- ”संकल्पशक्ति क्रिया में परिणित होती है और उसी का स्थूल रूप वैभव एवं घटनाक्रम बनकर सामने आता है । नाभि (संकल्प) में से अन्तरंग बहिरंग बनकर विकसित होने वाली कर्म-वल्लरी को ही पौराणिक अलंकरण में कमलबेल कहा गया है । पुष्प इसी बेल का परिपक्व परिणाम है । सृष्टि का सृजन हुआ, इसमें दो तत्व प्रयुक्त हुए-१ ज्ञान, २ कर्म । इन दोनों के संयोग से सूक्ष्म चेतना, संकल्प शक्ति स्थूल वैभव में परिणत हो गई और संसार का विशाल कलेवर बनकर खड़ा हो गया । उसमें ऋद्धि-सिद्धियों का आनन्द-उल्लास भर गया । यही कमल-पुष्प की पखुड़ियाँ हैं । इसका मूल है ज्ञान और कर्म, जो ब्रह्म की इच्छा और प्रत्यावर्तन प्रक्रिया द्वारा सम्भव हुआ । ज्ञान और कर्म के आधार पर ही मनुष्य की गरिमा का विकास हुआ है ।” मनुष्य की महान गरिमा के अनुरूप जीवन जीने के अभ्यास को द्विजत्व की साधना कहा गया है । द्विजत्व की साधना सहज नहीं है । मन की कमजोरियों और परिस्थितियों की विषमताओं के कारण प्रयास करने पर भी साधकों से चूकें हो जाती हैं । समय-समय पर आत्म समीक्षा द्वारा उन भूल-चूकों को चिन्हित करके उन्हें ठीक करना, अपने अन्दर सन्निहित महान सम्भावनाओं को जाग्रत्-साकार करने के प्रयास करना जरूरी होता है । इस सदाशयतापूर्ण संकल्प को पूरा करने के लिए श्रावणी पर्व-ब्राह्मी संकल्प के फलित होने वाले पर्व से श्रेष्ठ और कौन-सा समय हो सकता है? इसलिए ऋषियों ने द्विजत्व के परिमार्जन-विकास के लिए श्रावणी पर्व को ही चुना है ।
#विधि :- श्रावणी उपाकर्म के तीन पक्ष है- प्रायश्चित्त संकल्प, संस्कार और स्वाध्याय। सर्वप्रथम होता है- प्रायश्चित्त रूप में हेमाद्रि स्नान संकल्प। गुरु के सान्निध्य में ब्रह्मचारी गोदुग्ध, दही, घृत, गोबर और गोमूत्र तथा पवित्र कुशा से स्नानकर वर्षभर में जाने-अनजाने में हुए पापकर्मों का प्रायश्चित्त कर जीवन को सकारात्मकता से भरते हैं। स्नान के बाद ऋषिपूजन, सूर्योपस्थान एवं यज्ञोपवीत पूजन तथा नवीन यज्ञोपवीत धारण करते हैं। यज्ञोपवीत या जनेऊ आत्म संयम का संस्कार है। आज के दिन जिनका यज्ञोपवित संस्कार हो चुका होता है, वह पुराना यज्ञोपवित उतारकर नया धारण करते हैं और पुराने यज्ञोपवित का पूजन भी करते हैं । इस संस्कार से व्यक्ति का दूसरा जन्म हुआ माना जाता है। इसका अर्थ यह है कि जो व्यक्ति आत्म संयमी है, वही संस्कार से दूसरा जन्म पाता है और द्विज कहलाता है। उपाकर्म का तीसरा पक्ष स्वाध्याय का है। इसकी शुरुआत सावित्री, ब्रह्मा, श्रद्धा, मेधा, प्रज्ञा, स्मृति, सदसस्पति, अनुमति, छंद और ऋषि को घृत की आहुति से होती है। जौ के आटे में दही मिलाकर ऋग्वेद के मंत्रों से आहुतियां दी जाती हैं। इस यज्ञ के बाद वेद-वेदांग का अध्ययन आरंभ होता है। इस सत्र का अवकाश समापन से होता है। इस प्रकार वैदिक परंपरा में वैदिक शिक्षा साढ़े पांच या साढ़े छह मास तक चलती है। वर्तमान में श्रावणी पूर्णिमा के दिन ही उपाकर्म और उत्सर्ग दोनों विधान कर दिए जाते हैं। प्रतीक रूप में किया जाने वाला यह विधान हमें स्वाध्याय और सुसंस्कारों के विकास के लिए प्रेरित करता है। यह जीवन शोधन की एक अति महत्वपूर्ण मनोवैज्ञानिक-आध्यात्मिक प्रक्रिया है । उसे पूरी गम्भीरता के साथ किया जाना चाहिए । श्रावणी पर्व शरीर, मन और इन्द्रियों की पवित्रता का पुण्य पर्व माना जाता है । इस पर्व पर की जाने वाली सभी क्रियाओं का यह मूल भाव है कि बीते समय में मनुष्य से हुए ज्ञात-अज्ञात बुरे कर्म का प्रायश्चित करना और भविष्य में अच्छे कार्य करने की प्रेरणा देना। द्विज और द्विजत्व:- द्विज सम्बोधन यहाँ किसी जाति-वर्ग विशेष के लिए नहीं है, यह एक गुणवाचक सम्बोधन है । जीवन साधना की उच्चतम कक्षा के सफल साधक का पर्याय है । द्विज का अर्थ होता है-दुबारा जन्म लेने वाला । संस्कृत साहित्य में पक्षियों को भी द्विज कहा जाता है । माँ जन्म देती है अण्डे को । माँ के गर्भ से जन्म ले लेने की प्रक्रिया पूरी हो जाने पर भी बच्चे का स्वरूप जन्मदात्री के स्वरूप के अनुरूप नहीं होता । परन्तु अण्डे के अंदर जो जीव है, उसमें जन्मदात्री के अनुरूप विकसित होने की सभी संभावनाएँ होती हैं । प्रकृति के अनुशासन का पालन किये जाने पर उसका समुचित विकास हो जाता है और वह अण्डे में बँधी अपनी संकीर्ण सीमा को तोड़कर अपने नये स्वरूप में प्रकट हो जाता है । इस प्रक्रिया को उसका दूसरा जन्म कहना हर तरह से उचित है । यह प्रक्रिया पूरी होने पर ही उसे प्रकृति की विराटता का बोध होता है । तभी माँ उसे उड़ने का प्रशिक्षण देती है । ऋषियों ने अनुभव किया कि मनुष्य स्रष्टा की अद्भुत कृति है । उसमें दिव्य शक्तियों, क्षमताओं के विकास की अनंत सँभावनाएँ हैं । सामान्य रूप से तो माँ के गर्भ से जन्म लेने के बाद भी वह पशुओं जैसी आहार, निद्रा, भय, मैथुन की संकीर्ण प्रवृत्तियों के घेरे में ही कैद रहता है । मनुष्य की अंतःचेतना जब पुष्ट होकर संकीर्णता के उस अण्डे जैसे घेरे को तोड़कर बाहर आने का पुरुषार्थ करती है, तब उसका दूसरा जन्म होता है । तभी माता (आदिशक्ति) उसे सदाशयता और सत्पुरुषार्थ (सद्ज्ञान एवं सत्कर्म) के पंख फैलाकर जीवन की ऊँचाइयों में उड़ने का प्रशिक्षण देती है । तैयारी करें:- जो साधक वास्तव में इसका यथेष्ट लाभ उठाना चाहते हैं, उन्हें इसके लिए कम से कम एक दिन पूर्व से विचार मंथन करना चाहिए । गुरुदीक्षा के समय अथवा अगले चरण के साधना प्रयोगों में जो नियम-अनुशासन स्वीकार किये गये थे, उन पर ध्यान दिया जाना चाहिए । भूलों को समझे और स्वीकार किए बिना उनका शोधन संभव नहीं । आत्मसाधना में समीक्षा के बाद ही शोधन, निर्माण एवं विकास के कदम बढ़ाये जा सकते हैं । जो भुल-चूकें हुई हों, उन्हें गुुरुसत्ता के सामने सच्चे मन से स्वीकार किया जाना चाहिए । क्षति पूर्ति के लिए अपने र्कत्तव्य निश्चित करके गुुरुसत्ता से उसमें समुचित सहायता की प्रार्थना करनी चाहिए ।
श्रावणी उपाकर्म के सामूहिक क्रम में जो शामिल हों, उन्हें सामूहिक कर्मकाण्ड का लाभ तभी मिलेगा, जब वे उसके लिए व्यक्तिगत मंथन कर चुके होंगे । उसके बाद शिखा सिंचन उच्च विचार-ज्ञान साधना को तेजस्वी बनने के लिए किया जाता है । यज्ञोपवीत परिवर्तन यज्ञीय कर्म अनुशासन को अधिक प्रखर-प्रामाणिक बनाने के लिए किया जाता है । ब्रह्मा का, वेद का और ऋषियों का आवाहन, पूजन उनकी साक्षी में संकल्प करने तथा उनके सहयोग से आगे बढ़ते रहने के भाव से किया जाता है । रक्षाबंधन प्रगति के श्रेष्ठ संकल्पों को पूरा करने के भाव से किया-कराया जाता है । प्रकृति के अनुदानों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने के साथ उसके ऋण से यथाशक्ति उऋण होने के भाव से वृक्षारोपण करने का नियम है । श्रावणी पर हर दीक्षित साधक को साधना का परिमार्जन करने के साथ उसको श्रेष्ठतर स्तरों पर ले जाने के संकल्प करने चाहिए । ऐसा करने वाले साधक ही इष्ट, गुरु या मातृसत्ता के उच्च स्तरीय अनुदानों को प्राप्त करने की पात्रता अर्जित कर सकते हैं । यदि सामूहिक पर्व क्रम में शामिल होने का सुयोग न बने तथा विशेष कर्मकाण्डों का करना-कराना संभव न हो, तो भी अपने साधना स्थल पर भावनापूर्वक पर्व के आवश्यक उपचारों द्वारा श्रावणी के प्राण-प्रवाह से जुड़कर उसका पर्याप्त लाभ प्राप्त किया जा सकता है । इसके लिए सभी को एक दिन पहले से ही जागरूकतापूर्वक प्रयास करने-कराने चाहिए । भूलों के सुधार तथा विकास के लिए निर्धारित नियमों को लिखकर पूजा स्थल पर रख लेना चाहिए । उपासना के समय उन पर दृष्टि पड़ने से होने वाली भूलों, विसंगतियों से बचना संभव होता है । हमारे सार्थक प्रयास हमें उच्च स्तरीय प्रगति का अधिकारी बना सकते हैं|